‘मेक इन इंडिया’के 10 साल : क्या मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना फेल हो गई?

Zulfam Tomar
14 Min Read

Make in India: Has Modi Government’s Ambitious Initiative Failed? :हाल के दिनों में, ‘मेक इन इंडिया’ पर सरकार और विपक्ष के बीच कुछ दिलचस्प चर्चाएं हुई हैं। जहां सरकार ने इसे अपने बजट 2025 में एक प्रमुख क्षेत्र के रूप में शामिल किया है, वहीं विपक्ष, खासकर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने इसे विफल बताया है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट 2025 में ‘मेक इन इंडिया’ को आगे बढ़ाने की बात कही है। उन्होंने कहा कि यह सरकार के 10 प्रमुख क्षेत्रों में से एक है जिन पर अगले साल ध्यान केंद्रित किया जाएगा. इसके अलावा, सरकार ने एक राष्ट्रीय विनिर्माण मिशन की घोषणा की है जो छोटे, मध्यम और बड़े उद्योगों को कवर करेगा और ‘मेक इन इंडिया’ को बढ़ावा देगा

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PM didn’t even mention ‘Make in India’ in his speech! Although a good initiative, it is a failure- Rahul Gandhi

कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने संसद में ‘मेक इन इंडिया’ की आलोचना की है। उन्होंने कहा कि यह एक अच्छी योजना थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे सफल नहीं बना पाए. राहुल गांधी ने बताया कि 2014 में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी GDP में 15.3% थी, जो अब घटकर 12.6% हो गई है, जो 60 साल में सबसे कम है.

उन्होंने यह भी कहा कि भारत ने उत्पादन का आयोजन चीन को सौंप दिया है और हमारे देश में बनाए जाने वाले उत्पादों के अधिकांश घटक चीन से आते हैं. उन्होंने उदाहरण के रूप में मोबाइल फोन का उल्लेख किया, जो भारत में असेंबल किया जाता है, लेकिन इसके सभी पार्ट्स चीन से आते हैं

Contents
सरकार की राय: बजट 2025 में ‘मेक इन इंडिया’विपक्ष की राय: राहुल गांधी की आलोचनामेक इन इंडिया के उद्देश्य और लक्ष्यक्या थी ‘मेक इन इंडिया’ की असली योजना?हकीकत क्या है? आंकड़े बता रहे हैं सच्चाईबेरोजगारी बढ़ी, नौकरियां नहींव्यापार घाटा बढ़ता जा रहा हैविनिर्माण सेक्टर की हिस्सेदारी वही ठहरी हुई हैFDI में नकारात्मक रुझानक्यों फेल हुई ‘मेक इन इंडिया’? एक्सपर्ट्स की रायविदेशी पूंजी और वैश्विक बाजारों पर अत्यधिक निर्भरताकार्यान्वयन घाटा और नीतिगत लापरवाही,बड़े वादे, कमजोर क्रियान्वयनअत्यधिक महत्वाकांक्षी लक्ष्यबहुत सारे क्षेत्रों का समावेश और नीतिगत फोकस की कमीसरकार से सवालआगे की राह और संभावित समाधाननीतिगत फोकस में सुधारचुनिंदा सेक्टर्स पर फोकस करेंघरेलू उद्योगों को प्रोत्साहनबेहतर कार्यान्वयन तंत्र बेहतर इम्प्लीमेंटेशन मेकेनिज्मअवसंरचना में सुधारइंफ्रास्ट्रक्चर में सुधारस्किल डेवलपमेंट पर फोकस

वर्ष 2014 में भारत सरकार द्वारा शुरू की गई ‘मेक इन इंडिया’ पहल का उद्देश्य देश को एक वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनाना और अर्थव्यवस्था को गतिशील करना था। यह नीति भारत में विनिर्माण को प्रोत्साहित करने, विदेशी निवेश आकर्षित करने और रोजगार सृजन को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई थी। हालांकि यह एक महत्वाकांक्षी और सराहनीय पहल थी, परिणाम अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं रहे हैं। लगभग एक दशक के बाद भी, विनिर्माण क्षेत्र में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई, बेरोजगारी दर में कमी नहीं आई और व्यापार घाटा बढ़ता गया है।

क्या आप भी हैरान हैं कि 2014 में बड़े धूमधाम से शुरू की गई ‘मेक इन इंडिया’ योजना के अच्छे नतीजे क्यों नहीं दिख रहे? लगभग 10 साल बाद भी भारत के विनिर्माण सेक्टर की हालत में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। बेरोजगारी कम होने की बजाय बढ़ी है और हमारा व्यापार घाटा भी बढ़ता जा रहा है।  आइए जानते हैं कि आखिर क्यों यह योजना अपने लक्ष्यों को हासिल करने में नाकाम रही और इसके पीछे कौन से कारण हैं।

25 सितंबर 2014 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस योजना को लॉन्च किया, तो बड़े-बड़े दावे किए गए थे। देश को विनिर्माण का ग्लोबल हब बनाना, विदेशी निवेश आकर्षित करना और करोड़ों नौकरियां पैदा करना – यही इसका मकसद था। योजना की शुरुआत के बाद 2015 में तो ऐसा भी लगा कि भारत FDI के लिए नंबर वन डेस्टिनेशन बन गया है, अमेरिका और चीन को भी पीछे छोड़ दिया!

सरकार ने क्या-क्या वादे किए थे? विनिर्माण क्षेत्र की ग्रोथ 12-14% तक पहुंचाना, GDP में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 25% तक बढ़ाना, और 2022 तक 10 करोड़ नई नौकरियां देने का लक्ष्य रखा था। लेकिन क्या यह सब हुआ? नहीं!

भारत सरकार ने देश में विनिर्माण को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से ‘मेक इन इंडिया’ पहल की घोषणा की थी। इस पहल का मुख्य लक्ष्य भारत को वैश्विक विनिर्माण का केंद्र बनाना और विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में निवेश को बढ़ावा देना था। इस पहल के शुरू होने के बाद, 2015 में भारत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के लिए शीर्ष गंतव्य के रूप में उभरा, जिसमें अमेरिका और चीन को भी पीछे छोड़ दिया गया।

मेक इन इंडिया के चार प्रमुख उद्देश्य थे: प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को बढ़ाना, निर्यात को बढ़ावा देना और आयात में कटौती करना, सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण उद्योग की हिस्सेदारी को 25% तक बढ़ाना, और रोजगार सृजन में वृद्धि करना। इसके अतिरिक्त, पहल का लक्ष्य विनिर्माण क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर को 12-14% तक पहुंचाना और 2022 तक अर्थव्यवस्था में 100 मिलियन अतिरिक्त विनिर्माण नौकरियां पैदा करना था। हालांकि, वर्तमान आंकड़े इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में विफलता दिखाते हैं।

मेक इन इंडिया की सफलता को मुख्य रूप से तीन कारकों के आधार पर आंका जा सकता है: निवेश, उत्पादन और रोजगार वृद्धि। दुर्भाग्य से, इन तीनों मापदंडों पर यह योजना  अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है।

बेरोजगारी बढ़ी, नौकरियां नहीं

2014 से 2024 तक भारत की बेरोजगारी दर 5.44% से बढ़कर 7.8% हो गई है, जो इस पहल के रोजगार सृज के लक्ष्य की विफलता को दर्शाता है। हालांकि, हाल के पूर्वानुमानों के अनुसार बेरोजगारी दर वर्तमान तिमाही में घटकर 7.2% और 2026 तक 7.1% तक कम होने की संभावना है ऐसा अनुमान लगाया गया है ,लेकिन  यह अभी भी 2014 के स्तर से काफी अधिक है। औद्योगिक रोजगार में वृद्धि श्रम बाजार में नए प्रवेशकों की दर के साथ तालमेल बिठाने में असफल रही है। आखिर सरकार इस बारे में क्या जवाब देगी? 10 करोड़ नौकरियों का वादा क्या सिर्फ चुनावी जुमला था?

‘मेक इन इंडिया’ का एक बड़ा मकसद था कि निर्यात बढ़ेगा और आयात कम होगा। लेकिन हुआ उल्टा! 2014 में व्यापार घाटा 61 अरब डॉलर था, जो अब बढ़कर 73 अरब डॉलर हो गया है। रिपोर्ट्स के अनुसार, भारत का व्यापार घाटा दिसंबर 2024 के 21.94 बिलियन डॉलर से बढ़कर जनवरी 2025 में 22.9 बिलियन डॉलर हो गया, जिसमें निर्यात 36.43 बिलियन डॉलर और आयात 59.4 बिलियन डॉलर रहा। अर्थशास्त्रियों ने 22.35 बिलियन डॉलर के घाटे का अनुमान लगाया था।यह इस पहल के मूल उद्देश्य के विपरीत है।क्या यही ‘आत्मनिर्भर भारत’ की तस्वीर है? सरकार इसे कैसे समझाएगी?

GDP में विनिर्माण सेक्टर की हिस्सेदारी 25% तक पहुंचानी थी, लेकिन 10 साल बाद भी यह 15% पर ही अटकी हुई है। औद्योगिक उत्पादन का मंथली इंडेक्स ज्यादातर महीनों में 3% या उससे भी कम रहा है, और कुछ महीनों में तो नेगेटिव भी रहा है। इसका मतलब है कि सेक्टर सिकुड़ रहा है, बढ़ने की बजाय! क्या सरकार को लगता है कि यह सफलता है?

हालांकि FDI इनफ्लो में वृद्धि हुई है, लेकिन FDI आउटफ्लो भी बढ़ा है। 2014 में भारत में 36 अरब डॉलर का निवेश हुआ था,जबकि 5.3 अरब डॉलर का पैसा बाहर गया था।, जिससे 30.7 मिलियन डॉलर का शुद्ध निवेश हुआ। 2024 में FDI इनफ्लो बढ़कर 71 अरब डॉलर हो गया, लेकिन आउटफ्लो भी बढ़कर 44.4 अरब डॉलर हो गया, जिसके परिणामस्वरूप 185 मिलियन डॉलर का शुद्ध घाटा हुआ। यह दर्शाता है कि हालांकि भारत विदेशी निवेश आकर्षित कर रहा है, लेकिन बड़ी मात्रा में पूंजी बाहर भी जा रही है।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि ‘मेक इन इंडिया’ की सबसे बड़ी कमजोरी थी विदेशी पूंजी और ग्लोबल मार्केट्स पर ज्यादा निर्भरता। इससे हमारा मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर इंटरनेशनल मार्केट की अनिश्चितताओं से प्रभावित होता रहा। क्योंकि घरेलू उत्पादन को मांग और आपूर्ति की स्थितियों के अनुसार नियोजित करना पड़ा। यह रणनीति भारत के विनिर्माण क्षेत्र को अंतरराष्ट्रीय बाजार की अस्थिरताओं के प्रति संवेदनशील बना देती है और घरेलू अर्थव्यवस्था की तुलनात्मक शक्तियों का लाभ उठाने की क्षमता को सीमित करती है।

नीति निर्माताओं ने एक बड़ी चीज नजरअंदाज की – ‘इम्प्लीमेंटेशन डेफिसिट’! बजट और फिस्कल डेफिसिट की तो हर कोई बात करता है, लेकिन इम्प्लीमेंटेशन डेफिसिट के बारे में कौन सोचता है? योजनाएं बनाना आसान है, लेकिन उन्हें जमीन पर उतारना मुश्किल। क्या सरकार बताएगी कि उसने इस डेफिसिट को दूर करने के लिए क्या ठोस कदम उठाए?

सरकार जब भी कोई योजना या नीति बनाती है, तो अक्सर उसे लागू करने में ही सबसे ज्यादा दिक्कतें आती हैं। इसे ही कहते हैं ‘कार्यान्वयन घाटा’ (Implementation Deficit)

हम आमतौर पर बजट घाटा (Budget Deficit) और राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) के बारे में सुनते हैं, जिनका सीधा संबंध पैसों की कमी से होता है। लेकिन असली समस्या तब पैदा होती है जब अच्छी योजनाएं कागज पर ही रह जाती हैं और जमीन पर लागू नहीं हो पातीं — यही है कार्यान्वयन घाटा

मेक इन इंडिया ने विनिर्माण क्षेत्र के लिए बहुत महत्वाकांक्षी वृद्धि दरें निर्धारित कीं। 12-14% की सालाना ग्रोथ रेट और 10 करोड़ नौकरियां – क्या यह लक्ष्य जमीनी हकीकत से मेल खाते थे? एक्सपर्ट्स का कहना है कि इतने बड़े लक्ष्य रखने से असली प्रगति को मापना मुश्किल हो जाता है। क्या सरकार ने जानबूझकर ऐसे बड़े लक्ष्य रखे थे ताकि जनता के सामने अच्छा दिखे?

इस पहल ने अपने दायरे में बहुत सारे क्षेत्रों को शामिल किया, जिससे नीतिगत फोकस का नुकसान हुआ। इसे घरेलू अर्थव्यवस्था के तुलनात्मक लाभों की कोई समझ नहीं रखने वाली नीति के रूप में देखा गया। संसाधनों और प्रयासों को केंद्रित करने के बजाय, बहुत सारे क्षेत्रों पर ध्यान देने से प्रभावशीलता कम हो गई।

  1. 10 साल बाद भी आपकी योजना से रोजगार क्यों नहीं बढ़ा, बल्कि बेरोजगारी और बढ़ गई?

  2. विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 25% के लक्ष्य से आधी भी क्यों नहीं पहुंच पाई?

  3. क्या ‘मेक इन इंडिया’ महज एक मार्केटिंग स्लोगन बनकर रह गया है?

  4. क्या आप इस बात को स्वीकार करते हैं कि इम्प्लीमेंटेशन में बड़ी कमियां रही हैं?

  5. व्यापार घाटा कम होने की बजाय क्यों बढ़ गया?

  6. क्या आप आंकड़ों के आधार पर मानते हैं कि ‘मेक इन इंडिया’ अपने मूल उद्देश्यों में विफल रही है?

चुनिंदा सेक्टर्स पर फोकस करें

हर सेक्टर पर फोकस करने की बजाय, उन पर ध्यान दें जहां भारत के पास नेचुरल या स्ट्रेटेजिक एडवांटेज है। फार्मा, टेक्सटाइल, फूड प्रोसेसिंग, रिन्यूएबल एनर्जी – ये कुछ ऐसे सेक्टर हैं जहां हम दुनिया में अपनी पहचान बना सकते हैं।

घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन

विदेशी कंपनियों को बुलाने पर इतना ज्यादा जोर देने की बजाय, लोकल स्टार्टअप्स और SMEs को सपोर्ट करें। इससे आत्मनिर्भरता बढ़ेगी और ग्लोबल अनिश्चितताओं का असर कम होगा।

बेहतर इम्प्लीमेंटेशन मेकेनिज्म

नीतियों की घोषणा करने से पहले उन्हें लागू करने के लिए मजबूत तंत्र सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। इसमें स्पष्ट जिम्मेदारियां, समयबद्ध लक्ष्य और नियमित निगरानी और मूल्यांकन शामिल होना चाहिए।

सिर्फ योजना घोषित करना काफी नहीं है। उसे लागू करने के लिए क्लियर रिस्पॉन्सिबिलिटीज, टाइमलाइन और रेग्युलर मॉनिटरिंग जरूरी है। हर 3 महीने में प्रगति रिपोर्ट पब्लिक की जानी चाहिए।

इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार

मैन्युफैक्चरिंग के लिए अच्छे इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होती है। बिजली की रिलायबल सप्लाई, अच्छी ट्रांसपोर्ट और लॉजिस्टिक्स के बिना विनिर्माण सेक्टर कैसे ग्रो करेगा?

स्किल डेवलपमेंट पर फोकस

नौकरियां बढ़ाने के लिए स्किल्ड वर्कफोर्स जरूरी है। वोकेशनल ट्रेनिंग और स्किल डेवलपमेंट पर ज्यादा फोकस करना होगा।

विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए, भारत को अपनी अवसंरचना, विशेष रूप से बिजली, परिवहन और लॉजिस्टिक्स को मजबूत करने की आवश्यकता है। बेहतर अवसंरचना से लागत कम होगी और प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ेगी। इससे श्रमबल की गुणवत्ता में सुधार होगा और उत्पादकता बढ़ेगी।

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