पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि सेवा से बर्खास्त किए गए कर्मचारी पेंशन के अधिकार का दावा नहीं कर सकते। यह निर्णय मलूक सिंह के मामले में आया, जिन्हें 21 वर्ष से अधिक की सेवा के बाद अनुशासनात्मक कार्यवाही के तहत बर्खास्त कर दिया गया था। अदालत ने पंजाब सिविल सेवा नियमों का हवाला देते हुए कहा कि बर्खास्तगी पेंशन अधिकारों को स्वतः ही समाप्त कर देती है, हालांकि विशेष परिस्थितियों में अनुकंपा भत्ते की मांग की जा सकती है। इस फैसले से सरकारी कर्मचारियों, विशेषकर सुरक्षा बलों में कार्यरत लोगों के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं, जहां अनुशासन और आचरण के उच्च मानकों की अपेक्षा की जाती है।
पंजाब सिविल सेवा नियम सरकारी कर्मचारियों के सेवाकालीन और सेवानिवृत्ति के बाद के अधिकारों को विनियमित करते हैं। इन नियमों के खंड II में पेंशन और अन्य सेवानिवृत्ति लाभों से संबंधित प्रावधान शामिल हैं। विशेष रूप से, नियम 2.1 और 2.2 पेंशन की पात्रता की शर्तें निर्धारित करते हैं, जबकि नियम 2.5 बर्खास्त कर्मचारियों के लिए विशेष प्रावधान करता है1। पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि पेंशन मूल रूप से उन कर्मचारियों के लिए है जो सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त होते हैं, न कि जिन्हें अनुशासनात्मक कार्रवाई के तहत सेवा से हटाया गया हो।

नियम 2.5 विशेष रूप से उल्लेख करता है कि सेवा से बर्खास्त किए गए कर्मचारी पेंशन के लिए अयोग्य हो जाते हैं। हाईकोर्ट ने न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता के नेतृत्व में इस नियम की व्याख्या करते हुए कहा, “सेवा से बर्खास्त किया गया कर्मचारी पेंशन का हकदार नहीं है। हालांकि, वह पंजाब सिविल सेवा नियम (खंड II) के नियम 2.5 के तहत अनुकंपा भत्ते (Compassionate Allowance) की मांग कर सकता है।”1 यह महत्वपूर्ण अंतर है – बर्खास्त कर्मचारी पेंशन का दावा नहीं कर सकता, लेकिन अनुकंपा भत्ते के लिए अनुरोध कर सकता है, जो एक अलग प्रकार का वित्तीय लाभ है और जिसे सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में ही मंजूर किया जाता है। लेकिन यह भत्ता तभी दिया जाता है जब सरकार यह मानती है कि बर्खास्त कर्मचारी और उसके परिवार की स्थिति अत्यंत दयनीय है।
पंजाब सिविल सेवा नियमों में यह भी स्पष्ट किया गया है कि पेंशन एक नियोक्ता का दायित्व है, न कि कर्मचारी का अधिकार। इसका अर्थ है कि पेंशन प्रदान करना या न करना सरकार के विवेक पर निर्भर करता है, और सेवा के दौरान किए गए कदाचार या गंभीर अनुशासनहीनता के मामलों में इसे रोका जा सकता है। यह दृष्टिकोण भारतीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विभिन्न निर्णयों में समर्थित किया गया है, जहां यह माना गया है कि पेंशन लाभ सरकारी कर्मचारियों के लिए सशर्त होते हैं और उनकी सेवा की शर्तों के अनुपालन पर निर्भर करते हैं।
मलूक सिंह का मामला पंजाब पुलिस में सेवारत कर्मचारियों के लिए एक महत्वपूर्ण फ़ैसला बन गया है। मलूक सिंह ने सेना में सेवा देने के बाद अक्टूबर 1975 में पंजाब पुलिस में पदभार संभाला था। उन्होंने पुलिस बल में लगभग 24 वर्षों तक सेवा की, लेकिन अनुशासनात्मक कार्यवाही के बाद 29 मई 1999 को उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। बर्खास्तगी के आदेश के विरुद्ध उन्होंने विभागीय अपील दायर की, जो खारिज कर दी गई। इसके बाद, उन्होंने दया याचिका भी दायर की, जो भी अस्वीकार कर दी गई।
सभी विभागीय उपचारों के समाप्त होने के बाद, मलूक सिंह ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। न्यायालय ने 16 मई 2003 के एक आदेश में उनकी बर्खास्तगी के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। हालांकि, उनकी लंबी सेवा अवधि को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने उन्हें पेंशन लाभ प्राप्त करने के लिए संबंधित अधिकारियों से संपर्क करने की स्वतंत्रता दी। इस अवसर का लाभ उठाते हुए, मलूक सिंह ने अधिकारियों से संपर्क किया, लेकिन उनका पेंशन का दावा 2004 में खारिज कर दिया गया।
इसके बाद, मलूक सिंह ने पेंशन लाभ प्रदान करने के लिए हाईकोर्ट के समक्ष एक और याचिका दायर की। याचिका के लंबित रहने के दौरान मलूक सिंह का निधन हो गया, जिसके बाद उनके कानूनी प्रतिनिधियों ने मामले को आगे बढ़ाया। उनके प्रतिनिधियों का मुख्य तर्क यह था कि 21 वर्ष से अधिक की सेवा देने वाले कर्मचारी को केवल बर्खास्तगी के कारण पेंशन से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि मलूक सिंह के परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर है और पेंशन लाभों की अत्यधिक आवश्यकता है।
हाईकोर्ट ने मलूक सिंह के मामले की सुनवाई करते हुए सबसे पहले यह नोट किया कि उनकी बर्खास्तगी अंतिम हो चुकी है, क्योंकि पिछले मुकदमे में खंडपीठ ने इसमें हस्तक्षेप नहीं किया था। इसका अर्थ यह था कि अदालत के सामने अब केवल एक ही मुद्दा था – क्या बर्खास्त कर्मचारी पेंशन लाभ का दावा कर सकता है या नहीं?
इस मुद्दे पर अदालत ने पंजाब सिविल सेवा नियम के नियम 2.5 का विस्तृत विश्लेषण किया, जो स्पष्ट रूप से कहता है कि बर्खास्त कर्मचारी पेंशन के अधिकार से वंचित हो जाता है। न्यायालय ने इस सिद्धांत की पुष्टि करते हुए कहा कि पेंशन केवल उन कर्मचारियों के लिए है जो सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त होते हैं, न कि जिन्हें अनुशासनात्मक कार्यवाही के तहत सेवा से हटाया गया हो।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि नियम 2.5 बर्खास्त कर्मचारियों को अनुकंपा भत्ते का दावा करने की अनुमति देता है, लेकिन यह भत्ता स्वतः नहीं मिलता1। इसे केवल असाधारण परिस्थितियों में ही प्रदान किया जा सकता है, और इसके लिए सक्षम प्राधिकारी द्वारा विशेष अनुमोदन की आवश्यकता होती है। मलूक सिंह के मामले में, अदालत ने पाया कि उनकी स्थिति में ऐसी कोई असाधारण परिस्थितियाँ नहीं थीं जो अनुकंपा भत्ते को न्यायोचित ठहराती हों।
इसके अतिरिक्त, अदालत ने याचिका दायर करने में 7 वर्ष की अस्पष्ट देरी पर भी ध्यान दिया। अधिकारियों ने 2004 में ही मलूक सिंह के पेंशन दावे को खारिज कर दिया था, लेकिन उन्होंने 2011 में उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। इस अनावश्यक देरी को भी याचिका खारिज करने का एक कारण माना गया।
मलूक सिंह का मामला अकेला नहीं है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने इससे पहले भी ऐसे कई मामलों पर निर्णय दिया है जहां बर्खास्त कर्मचारियों ने पेंशन लाभों का दावा किया था। इनमें से एक प्रमुख मामला है दो पुलिस कांस्टेबलों का, जिन्हें एनडीपीएस अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था और तीन साल की कैद की सजा सुनाई गई थी1। इस मामले में, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने स्पष्ट रूप से कहा था कि “सेवा से बर्खास्त किया गया कर्मचारी पेंशन का हकदार नहीं है।”1
इसी तरह, एक अन्य महत्वपूर्ण मामले ‘अजीत सिंह (मृतक) जसवीर कौर बनाम महालेखाकार (ए एंड ई), पंजाब और अन्य’ में भी अदालत ने इसी सिद्धांत का पालन किया था1। यह मामला मलूक सिंह के वकीलों द्वारा दायर किया गया था, लेकिन अदालत ने पाया कि यह मामला वर्तमान मामले से अलग था और इसे लागू नहीं किया जा सकता।
भारतीय न्यायिक प्रणाली में, बर्खास्त कर्मचारियों के पेंशन अधिकारों के संबंध में एक सुसंगत दृष्टिकोण देखा जा सकता है। विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि पेंशन एक नियोक्ता का दायित्व है, न कि कर्मचारी का अधिकार, और इसे अनुशासनात्मक कार्यवाही के तहत रोका जा सकता है। हालांकि, कुछ मामलों में, विशेष परिस्थितियों को देखते हुए, अदालतों ने अनुकंपा भत्ते या अन्य राहत प्रदान करने का निर्देश दिया है।
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि अनुकंपा भत्ता स्वतः ही प्राप्त होने वाला लाभ नहीं है, बल्कि इसके लिए विशेष परिस्थितियों का होना आवश्यक है। न्यायमूर्ति जगमोहन बंसल ने मलूक सिंह के मामले में कहा कि बर्खास्त कर्मचारियों को पेंशन देना अनुशासनात्मक कार्यवाही को निरर्थक बना देगा1
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने पेंशन के अधिकार को लेकर कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं। इनमें से एक उल्लेखनीय निर्णय में, न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी की खंडपीठ ने ग्रेच्युटी और पेंशन के लाभ को कर्मचारी की मेहनत का परिणाम बताया है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पेंशन एक प्रकार की ‘संपत्ति’ है, और विभागीय या आपराधिक कार्यवाही लंबित होने के आधार पर सरकार किसी कर्मचारी को इस अधिकार से वंचित नहीं कर सकती2।
न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, “यह स्वीकार्य स्थिति है कि ग्रेच्युटी और पेंशन ईनाम नहीं है। एक कर्मचारी लगातार, निष्ठापूर्वक लंबी अवधि तक नौकरी करके ये लाभ अर्जित करता है। इसलिए यह मेहनत से अर्जित लाभ है।”2 इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि सर्वोच्च न्यायालय पेंशन को केवल एक लाभ नहीं, बल्कि एक अधिकार के रूप में देखता है, जिसे कर्मचारी अपनी सेवा के दौरान अर्जित करता है।
हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय उन मामलों से संबंधित है जहां विभागीय या आपराधिक कार्यवाही लंबित है, न कि उन मामलों से जहां कर्मचारी को पहले ही सेवा से बर्खास्त कर दिया गया हो। इसमें एक महत्वपूर्ण अंतर है, क्योंकि लंबित कार्यवाही का अर्थ है कि अंतिम निर्णय अभी तक नहीं लिया गया है, जबकि बर्खास्तगी एक अंतिम दंडात्मक कार्रवाई है।
हालांकि बर्खास्त कर्मचारी पेंशन का दावा नहीं कर सकते, उनके पास कुछ अन्य विकल्प हो सकते हैं। पंजाब सिविल सेवा नियम के नियम 2.5 के तहत, वे अनुकंपा भत्ते के लिए आवेदन कर सकते हैं1। यह भत्ता एक विशेष प्रकार का वित्तीय सहायता है जो असाधारण परिस्थितियों में प्रदान की जा सकती है। इसके लिए, बर्खास्त कर्मचारी को सक्षम प्राधिकारी के समक्ष एक औपचारिक आवेदन करना होगा, जिसमें उन विशेष परिस्थितियों का उल्लेख करना होगा जो इस तरह के भत्ते को न्यायोचित ठहराती हैं।
अनुकंपा भत्ते के अलावा, बर्खास्त कर्मचारी अपने भविष्य निधि (पीएफ) और अन्य स्वयं के योगदान से बने कोषों को निकालने के हकदार हो सकते हैं। ये राशियां उन्हें प्राप्त हो सकती हैं, भले ही वे पेंशन के लिए अयोग्य हों। इसके अतिरिक्त, कुछ मामलों में, बर्खास्त कर्मचारी न्यायालय में अपनी बर्खास्तगी को चुनौती दे सकते हैं, और यदि वे सफल होते हैं, तो उन्हें बहाली और बकाया वेतन के साथ-साथ पेंशन अधिकार भी मिल सकते हैं।
यह ध्यान देने योग्य है कि बर्खास्त कर्मचारियों के लिए इन विकल्पों का उपयोग करने के लिए समय सीमा होती है। उदाहरण के लिए, मलूक सिंह के मामले में, उनके पेंशन दावे को 2004 में खारिज कर दिया गया था, लेकिन उन्होंने 2011 तक अदालत में याचिका दायर नहीं की, जिसे अदालत ने अनावश्यक देरी माना। इसलिए, बर्खास्त कर्मचारियों को अपने अधिकारों और उपलब्ध विकल्पों के बारे में जागरूक होना चाहिए और समय पर उचित कार्रवाई करनी चाहिए।
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के अलावा, अन्य राज्य उच्च न्यायालयों ने भी बर्खास्त कर्मचारियों के पेंशन अधिकारों पर निर्णय दिए हैं। इन निर्णयों में कुछ समानताएं और विभिन्नताएं हैं, जो विभिन्न राज्यों में लागू अलग-अलग सेवा नियमों और स्थानीय परिस्थितियों को दर्शाती हैं।
अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कई मामलों में फैसला दिया है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही के दौरान बर्खास्त किए गए कर्मचारी पेंशन के अधिकार से वंचित हो जाते हैं। इसी तरह, गुजरात उच्च न्यायालय ने भी इसी सिद्धांत का पालन किया है, यह मानते हुए कि पेंशन सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त होने वाले कर्मचारियों के लिए है, न कि जिन्हें अनुशासनात्मक कार्यवाही के तहत बर्खास्त किया गया हो।
हालांकि, कुछ राज्य उच्च न्यायालयों ने अधिक उदार दृष्टिकोण अपनाया है। उदाहरण के लिए, मद्रास उच्च न्यायालय ने कुछ मामलों में फैसला दिया है कि यदि कर्मचारी ने पर्याप्त अवधि तक सेवा दी है, तो उसे आनुपातिक पेंशन दी जा सकती है, भले ही उसे बाद में बर्खास्त कर दिया गया हो। यह दृष्टिकोण मलूक सिंह जैसे मामलों में प्रासंगिक हो सकता है, जहां कर्मचारी ने लंबी अवधि तक सेवा दी थी।
अवैध बर्खास्तगी और लाभों की बहाली
दूसरी ओर, झारखंड हाईकोर्ट ने एक मामले में कहा कि यदि किसी कर्मचारी को अवैध तरीके से बर्खास्त किया गया है, तो वह सभी प्रकार के लाभ पाने का अधिकारी होता है, जिसमें वेतन और सेवानिवृत्ति लाभ शामिल हैं। यह तब लागू होता है जब अदालत बर्खास्तगी आदेश को रद्द कर देती है और कर्मचारी को पुनः नियुक्त करने का आदेश देती है, भले ही अदालत ने बर्खास्तगी अवधि के दौरान का वेतन और अन्य सेवानिवृत्ति लाभ देने का निर्देश न दिया हो।Full News
गलत बर्खास्तगी के मामलों में मुआवजा
सुप्रीम कोर्ट ने यह माना है कि कुछ मामलों में, गलत तरीके से बर्खास्त किए गए कर्मचारी को पिछले वेतन के साथ बहाली के बजाय एकमुश्त मुआवजा देना अधिक उचित हो सकता है। ऐसे मामलों में, अदालतें कर्मचारी और नियोक्ता दोनों के हितों को ध्यान में रखते हुए अपने दृष्टिकोण को उचित ठहराती हैं।Full Report
सेवानिवृत्ति लाभ का अधिकार
इसके अतिरिक्त, झारखंड हाईकोर्ट ने यह भी कहा है कि यदि कोई कानूनी बाधा न हो, तो सेवानिवृत्ति लाभ प्राप्त करना कर्मचारी का संवैधानिक और मौलिक अधिकार है। यह निर्णय उन मामलों में लागू होता है जहां कर्मचारी की सेवा समाप्ति कानूनी रूप से वैध नहीं होती है।full Report
विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों से यह स्पष्ट होता है कि पेंशन अधिकारों की व्याख्या में सेवा नियमों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पंजाब सिविल सेवा नियम के मामले में, नियम 2.5 स्पष्ट रूप से कहता है कि बर्खास्त कर्मचारी पेंशन का हकदार नहीं है, लेकिन अनुकंपा भत्ते का दावा कर सकता है।
अन्य राज्यों के सेवा नियमों में भी समान प्रावधान हो सकते हैं, हालांकि विवरण में अंतर हो सकता है। इन नियमों की व्याख्या में अंतर के कारण, विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों के निर्णयों में भी अंतर हो सकता है।
पेंशन अधिकारों के संबंध में विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों के बीच कुछ विरोधाभास दिखाई देते हैं। जहां सर्वोच्च न्यायालय ने पेंशन को एक प्रकार की ‘संपत्ति’ माना है और कहा है कि लंबित कार्यवाही के आधार पर इससे वंचित नहीं किया जा सकता, वहीं पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि बर्खास्त कर्मचारी पेंशन का दावा नहीं कर सकता।
इस विरोधाभास को समझने के लिए, यह महत्वपूर्ण है कि ‘लंबित कार्यवाही’ और ‘बर्खास्तगी’ के बीच अंतर को समझा जाए। लंबित कार्यवाही का अर्थ है कि अंतिम निर्णय अभी तक नहीं लिया गया है, और ऐसे मामलों में, सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, पेंशन रोकी नहीं जा सकती। दूसरी ओर, बर्खास्तगी एक अंतिम दंडात्मक कार्रवाई है, और ऐसे मामलों में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के अनुसार, कर्मचारी पेंशन का हकदार नहीं है।
इस प्रकार, दोनों निर्णय अपने-अपने संदर्भों में सही हो सकते हैं, लेकिन इस क्षेत्र में अधिक स्पष्टता की आवश्यकता है। यह स्पष्टता या तो विधायिका द्वारा स्पष्ट कानून बनाकर या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक व्यापक निर्णय देकर प्रदान की जा सकती है जो विभिन्न परिस्थितियों में पेंशन अधिकारों के विषय पर विस्तार से चर्चा करे।
बर्खास्त कर्मचारियों के पेंशन अधिकारों से संबंधित निर्णयों का न केवल कानूनी बल्कि आर्थिक प्रभाव भी होता है। जब किसी कर्मचारी को सेवा से बर्खास्त किया जाता है और उसके पेंशन अधिकार समाप्त हो जाते हैं, तो इसका उस व्यक्ति और उसके परिवार पर गंभीर वित्तीय प्रभाव पड़ता है। विशेष रूप से उन मामलों में जहां कर्मचारी ने लंबी सेवा दी हो, जैसे मलूक सिंह के मामले में, पेंशन से वंचित होना आजीविका का एक प्रमुख स्रोत खोने के समान है।
इसके अलावा, बर्खास्तगी के बाद पेंशन के नुकसान का भय सरकारी कर्मचारियों के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है। यह एक अनुशासनात्मक उपकरण के रूप में कार्य करता है, जो कर्मचारियों को कदाचार से दूर रहने के लिए प्रेरित करता है। हालांकि, ऐसे भी तर्क दिए जाते हैं कि कुछ मामलों में, विशेष रूप से जहां बर्खास्तगी मामूली उल्लंघनों के लिए की गई हो, पूर्ण पेंशन का नुकसान अत्यधिक कठोर दंड हो सकता है।
इस संदर्भ में, अनुकंपा भत्ता एक महत्वपूर्ण मध्यम मार्ग प्रदान करता है। यह सरकार को यह सुनिश्चित करने की अनुमति देता है कि गंभीर कदाचार के दोषी कर्मचारी पूर्ण पेंशन लाभ प्राप्त न करें, जबकि साथ ही असाधारण परिस्थितियों में कुछ वित्तीय सहायता प्रदान करने की लचीलापन भी रखता है। इस प्रकार, यह नीति अनुशासन बनाए रखने और मानवीय दृष्टिकोण के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करती है। यह भी पढ़े :होटस्टार (Hotstar) के बारे में abcd क्या आप जानते हैं?
पंजाब सिविल सेवा नियमों में पेंशन और सेवा से बर्खास्तगी से संबंधित प्रावधानों का ज्ञान सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए महत्वपूर्ण है। यह न केवल उन्हें अपने अधिकारों और दायित्वों के बारे में सूचित करता है, बल्कि अनुशासन की महत्ता को भी रेखांकित करता है। मलूक सिंह और अन्य समान मामले बताते हैं कि सेवा के दौरान अनुशासन और ईमानदारी बनाए रखना न केवल नैतिक दायित्व है, बल्कि वित्तीय सुरक्षा के लिए भी आवश्यक है।
सरकारी कर्मचारियों को यह समझना चाहिए कि पेंशन एक अधिकार नहीं, बल्कि नियोक्ता का दायित्व है, जो सेवा की शर्तों के अनुपालन पर निर्भर करता है। बर्खास्तगी के मामले में, कर्मचारी को न केवल नौकरी का नुकसान होता है, बल्कि वह सेवानिवृत्ति के बाद की वित्तीय सुरक्षा भी खो देता है। यह संदेश हाईकोर्ट के निर्णय से स्पष्ट रूप से प्रेषित होता है, और यह सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए एक चेतावनी के रूप में कार्य करता है। यह भी पढ़ो : चैंपियंस ट्रॉफी की ABC: और जानिए कौनसे साल किसने जीती और 2025 मे कौन जीतेगा …