विवाद और अब तक क्या हुआ:
जस्टिस यशवंत वर्मा case: के खिलाफ लगे आरोपों में अभी अब तक की क्या क्या हुआ:
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सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप: इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत संज्ञान लिया। भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना ने तीन जजों की एक इन-हाउस जांच समिति गठित की, जिसमें पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस जी.एस. संधावालिया और कर्नाटक हाई कोर्ट की जस्टिस अनु शिवरामन शामिल हैं। इस समिति ने 25 मार्च को जस्टिस वर्मा के आवास का दौरा किया और स्टोर रूम का मुआयना किया।
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न्यायिक कार्य वापस लिया: CJI के निर्देश पर जस्टिस वर्मा से तत्काल प्रभाव से सभी न्यायिक जिम्मेदारियां वापस ले ली गईं। दिल्ली हाई कोर्ट ने नया रोस्टर जारी कर उनके मामले दूसरी बेंच को सौंप दिए।
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ट्रांसफर का प्रस्ताव: सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जस्टिस वर्मा को दिल्ली से उनके मूल कोर्ट, इलाहाबाद हाई कोर्ट, वापस भेजने की सिफारिश की। हालांकि, इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने इसका कड़ा विरोध किया, इसे “कूड़ेदान में भेजने” जैसा बताते हुए आपत्ति जताई और उनके खिलाफ महाभियोग की मांग की।
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FIR की मांग और सुप्रीम कोर्ट का फैसला: सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई, जिसमें जस्टिस वर्मा के खिलाफ FIR दर्ज करने की मांग थी। यह याचिका वकील मैथ्यू नेदुम्पारा ने दाखिल की थी, जिसमें कहा गया कि मामले की जांच पुलिस को सौंपी जानी चाहिए। हालांकि, 28 मार्च 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया।
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कानूनी सलाह और जांच: जस्टिस वर्मा ने अपनी रक्षा के लिए वरिष्ठ वकीलों सिद्धार्थ अग्रवाल, मेनका गुरुस्वामी, अरुंधति काटजू और तारा नरूला से कानूनी सलाह ली। जांच समिति जल्द ही उनसे पूछताछ कर सकती है, और दिल्ली पुलिस ने स्टोर रूम को सील कर दिया है।
वर्तमान स्थिति:
लेकिन इससे पहले आप भी जान लीजिए कि जजों पर FIR कब और कैसे हो सकती हैं ,उसका प्रोसीजर क्या है
भारत में किसी जज (न्यायाधीश) के खिलाफ FIR (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दर्ज करना संभव है, लेकिन यह सामान्य परिस्थितियों से अलग और जटिल प्रक्रिया है, क्योंकि जजों को संविधान के तहत कुछ विशेष संरक्षण प्राप्त हैं। यह संरक्षण उनकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए दिया गया है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
क्या जज के खिलाफ FIR हो सकती है?
हां, जज के खिलाफ FIR दर्ज की जा सकती है, लेकिन इसके लिए कुछ शर्तें और प्रक्रियाएं हैं:
न्यायिक कार्यों से संबंधित संरक्षण: अगर कोई आरोप जज के न्यायिक कर्तव्यों (जैसे फैसले सुनाना) से जुड़ा है, तो संविधान के अनुच्छेद 124(4) और जजेस (प्रोटेक्शन) एक्ट, 1985 के तहत उन्हें सुरक्षा मिलती है। इसका मतलब है कि उनके फैसलों या कोर्ट में की गई कार्रवाइयों के लिए उन पर सीधे मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
गैर-न्यायिक कार्यों के लिए: अगर आरोप जज के व्यक्तिगत व्यवहार या गैर-न्यायिक गतिविधियों (जैसे भ्रष्टाचार, आपराधिक कृत्य) से संबंधित हैं, तो उनके खिलाफ FIR दर्ज की जा सकती है। हालांकि, इसके लिए उच्च स्तर की मंजूरी जरूरी होती है।
FIR दर्ज करने की प्रक्रिया:
जज के खिलाफ FIR दर्ज करने का प्रक्रिया इस प्रकार है:
जजों पर FIR करने के लिए उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट की अनुमति की जरूरी?:
अगर जज हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश है, तो उसके खिलाफ कोई भी कानूनी कार्रवाई (FIR सहित) शुरू करने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) या संबंधित हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस की सहमति लेनी पड़ती है। यह प्रक्रिया जज की स्थिति और स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए अपनाई जाती है।
उदाहरण: जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इन-हाउस जांच शुरू की, लेकिन अभी तक FIR दर्ज करने की अनुमति नहीं दी गई है।
शिकायत की जांच:
पहले शिकायत की प्रारंभिक जांच की जाती है, जो आमतौर पर न्यायपालिका के आंतरिक तंत्र (जैसे इन-हाउस कमेटी) द्वारा की जाती है। अगर जांच में प्रथम दृष्टया अपराध का सबूत मिलता है, तो आगे की कार्रवाई की सिफारिश की जा सकती है।
यह जांच यह तय करती है कि मामला पुलिस को सौंपा जाए या नहीं।
जजों पर FIR दर्ज करना:
अगर CJI या हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस मंजूरी देते हैं, तो पुलिस सामान्य प्रक्रिया के तहत FIR दर्ज कर सकती है (धारा 154, CrPC के तहत)।
लेकिन जज के खिलाफ FIR दर्ज करने से पहले सबूतों का मजबूत आधार होना जरूरी है, क्योंकि यह संवेदनशील मामला होता है।
महाभियोग की संभावना:
अगर अपराध गंभीर है (जैसे भ्रष्टाचार या पद का दुरुपयोग), तो FIR के साथ-साथ महाभियोग (Impeachment) की प्रक्रिया भी शुरू हो सकती है। इसके लिए संसद में प्रस्ताव लाना पड़ता है, जिसे लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत से पारित करना होता है (अनुच्छेद 124(4))।
जज के खिलाफ FIR संभव है, लेकिन यह सीधे पुलिस थाने में जाकर दर्ज नहीं हो सकती। इसके लिए पहले न्यायपालिका के उच्च अधिकारियों की मंजूरी और प्रारंभिक जांच जरूरी है। यह प्रक्रिया जजों की स्वतंत्रता को संतुलित करने और गलत आरोपों से बचाने के लिए बनाई गई है।
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