इलाहाबाद हाई कोर्ट नाम परिवर्तन फैसला इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में साफ कर दिया है कि किसी भी व्यक्ति के लिए अपने नाम में बदलाव करना उसका मौलिक अधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा कि यह पूरी तरह से नियमों और सरकारी नीतियों के तहत आता है। हाई कोर्ट की खंडपीठ ने यूपी सरकार की अपील पर सुनवाई करते हुए सिंगल बेंच के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें छात्र को नाम बदलने की अनुमति दी गई थी। इस फैसले के बाद यह साफ हो गया है कि नाम बदलने की प्रक्रिया सरकार की बनाई गई नीतियों के अनुसार ही होगी, न कि इसे मौलिक अधिकार माना जाएगा।
क्या है पूरा मामला?
यूपी बोर्ड के एक छात्र ने हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर अपने नाम में बदलाव की अनुमति मांगी थी। याची, जिसका नाम शाहनवाज था, उसे बदलकर “मो. समीर राव” करना चाहता था। पहले इस मामले पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की सिंगल बेंच ने फैसला सुनाया था और यूपी बोर्ड को निर्देश दिया था कि छात्र का नाम बदला जाए और उसके सभी दस्तावेजों में नया नाम दर्ज किया जाए। लेकिन इस फैसले को यूपी सरकार ने चुनौती दी और मामले को हाई कोर्ट की खंडपीठ में ले जाया गया।
खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए सिंगल बेंच के फैसले को पलट दिया और कहा कि नाम बदलना किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है। इसके लिए सरकार की तरफ से तय किए गए नियमों का पालन करना होगा।
सिंगल बेंच ने क्या कहा था?
इससे पहले हाई कोर्ट की सिंगल बेंच ने 25 मई 2023 को दिए अपने फैसले में यूपी बोर्ड के क्षेत्रीय निदेशक के उस आदेश को रद्द कर दिया था, जिसमें छात्र शाहनवाज का नाम बदलने की अर्जी खारिज कर दी गई थी। यूपी बोर्ड के नियमों के अनुसार, नाम बदलने के लिए आवेदन हाई स्कूल या इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के 3 साल के भीतर करना होता है। लेकिन याची की याचिका इस समय सीमा के बाहर थी, जिस वजह से बोर्ड ने उसका आवेदन रद्द कर दिया था।
हालांकि, सिंगल बेंच ने इस नियम को मनमाना और असंवैधानिक करार दिया। कोर्ट ने कहा कि अपनी पसंद का नाम रखना व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, जो संविधान के अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षित है। इसलिए, यूपी बोर्ड का यह नियम सही नहीं है और इसे हटाया जाना चाहिए।
सिंगल बेंच ने आदेश दिया था कि याची का नाम बदला जाए और उसके सभी शैक्षणिक प्रमाणपत्रों, आधार कार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस आदि में नया नाम दर्ज किया जाए।
सरकार ने क्यों दी इस फैसले को चुनौती?
इस फैसले के खिलाफ यूपी सरकार ने हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच (खंडपीठ) में अपील दायर की। राज्य सरकार का तर्क था कि नाम बदलने का अधिकार मौलिक अधिकारों के तहत नहीं आता है। सरकार की ओर से पेश हुए अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता रामानंद पांडेय ने दलील दी कि मौलिक अधिकार पूरी तरह से निर्बाध नहीं होते, बल्कि उन पर कुछ तार्किक प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं।
उन्होंने यह भी बताया कि यूपी बोर्ड का नाम बदलने से जुड़ा नियम 1921 के एक्ट के तहत आता है, जिसमें यह स्पष्ट है कि किसी भी छात्र को 3 साल के भीतर ही नाम परिवर्तन की अर्जी देनी होगी। सरकार के वकील ने कहा कि सिंगल बेंच ने इस नियम को मनमाने तरीके से असंवैधानिक करार दिया, जबकि यह सरकार का नीतिगत मामला है और ऐसे मामलों में नियम बनाने का अधिकार केवल सरकार के पास है।
इसके अलावा, सरकार ने यह भी तर्क दिया कि नाम बदलने से जुड़े मामलों की सुनवाई खंडपीठ में ही होनी चाहिए। एकल न्यायपीठ (सिंगल बेंच) को इस पर फैसला सुनाने का अधिकार नहीं था।
हाई कोर्ट की खंडपीठ ने क्या कहा?
इलाहाबाद हाई कोर्ट की खंडपीठ ने दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद यह स्पष्ट कर दिया कि नाम बदलना व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा कि सिंगल बेंच ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर फैसला सुनाया था, जो सही नहीं था।
खंडपीठ ने सरकार की दलील को सही मानते हुए कहा कि नाम बदलने की प्रक्रिया पूरी तरह से सरकारी नियमों और नीतियों के तहत आती है। इसमें सरकार की ओर से बनाए गए नियमों का पालन करना अनिवार्य होगा। कोर्ट ने यह भी कहा कि सिंगल बेंच का फैसला गलत था, क्योंकि उसने यूपी बोर्ड के नियमों को मनमाने तरीके से असंवैधानिक करार दे दिया था।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि केंद्र और राज्य सरकार को इस संबंध में स्पष्ट नीति बनानी चाहिए, ताकि भविष्य में इस तरह के मामलों को लेकर कोई भ्रम न रहे।
सरकार के दावे और कोर्ट की टिप्पणी
सरकार की ओर से पेश किए गए दावों के आधार पर कोर्ट ने कहा कि नाम बदलने से संबंधित नियमों को चुनौती नहीं दी जा सकती। कोर्ट ने यह भी कहा कि मौलिक अधिकार का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति किसी भी समय, बिना किसी प्रक्रिया का पालन किए, अपने नाम में बदलाव कर सकता है।
इसके अलावा, सरकार ने कोर्ट में यह भी बताया कि 1 अगस्त 2016 को चीफ जस्टिस की ओर से एक कार्यालय आदेश पारित किया गया था, जिसके तहत ऐसे सभी मामलों में सुनवाई खंडपीठ में ही की जानी चाहिए।
याची की ओर से नियुक्त न्याय मित्र श्रेयस श्रीवास्तव ने सिंगल बेंच के फैसले का समर्थन किया और कहा कि इसमें कोई गलती नहीं थी। लेकिन खंडपीठ ने सरकार की दलील को सही माना और कहा कि नाम बदलने के मामले में सरकार की नीतियों और नियमों का पालन करना आवश्यक है।
अदालत का अंतिम आदेश
कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा कि एकल न्यायपीठ ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर फैसला दिया था, जो पूरी तरह से गलत था। खंडपीठ ने सिंगल बेंच के फैसले को रद्द कर दिया और सरकार की अपील को स्वीकार कर लिया।
इसके साथ ही, कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को इस संबंध में एक उचित नीति बनाने और प्रशासनिक कार्य योजना तैयार करने का निर्देश दिया, ताकि नाम बदलने की प्रक्रिया को लेकर भविष्य में कोई विवाद न हो।
इस फैसले के बाद अब यह साफ हो गया है कि किसी भी व्यक्ति को अपने नाम में बदलाव करने के लिए सरकार की तय प्रक्रियाओं और नियमों का पालन करना होगा। यह मौलिक अधिकार के दायरे में नहीं आता और इसके लिए सरकारी मंजूरी जरूरी होगी।