aurangzeb vs media भारतीय मीडिया परिदृश्य में एक विचित्र और चिंताजनक प्रवृत्ति विकसित हुई है जहां मृत मुगल सम्राट औरंगज़ेब जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्वों पर अत्यधिक ध्यान देकर समकालीन महत्वपूर्ण मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाया जा रहा है। यह प्रवृत्ति विशेष रूप से उन मीडिया संस्थानों में देखी जाती है जिन्हें अक्सर “गोदी मीडिया” के रूप में संदर्भित किया जाता है – वे मीडिया आउटलेट जो सरकार के प्रति अनुचित रूप से अनुकूल माने जाते हैं। जब सरकारी नीतियों पर सवाल उठाने का समय आता है, तब ये मीडिया हाउस अक्सर औरंगज़ेब, धार्मिक विवादों मंदिर मस्जिद , होली जुमा या अन्य भावनात्मक मुद्दों पर बहस शुरू कर देते हैं, जो समाज को विभाजित करते हैं और वास्तविक समस्याओं से ध्यान हटाते हैं। ये एक सोची समझी रणनीति के तहत हो रहा है ये मीडिया आपका मीडिया नही है ये सरकार की ढाल है ,आपको जानबूझकर मानसिक गुलाम बनाया जा रहा है, ताकि आप इनके चलाये जा रहे मुद्दों में उलझकर रह जाओ और जो आपसे जुड़े हुवे देश से जुड़े हुवे असली मुद्दे है उनसे आपका ध्यान भटकाया जा सके,क्योकि मुद्दों पे बात होगी तो आप सरकार से सवाल करोगे
There are no debates on current crisis nation faces
औरंगज़ेब, जिनकी मृत्यु लगभग 300 वर्ष पहले हुई थी, आज भारतीय टेलीविज़न चैनलों पर डिबेट का एक लगातार विषय बन गए हैं। गोदी मीडिया चैनलों द्वारा दी जाने वाली हेडलाइंस जैसे “कब खुदेगी औरंगज़ेब की कब्र”, “औरंगज़ेब को आक्रांत मानने को क्यों नहीं तैयार”, “औरंगज़ेब पर दिल दहलाने वाली रिपोर्ट” और “औरंगज़ेब पर सियासी घमासान” इस प्रवृत्ति को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं। अंग्रेजी चैनलों पर भी इसी तरह के विषय प्रसारित होते हैं, जैसे “इज़ औरंगज़ेब द न्यू पॉप आइकॉन” या “अपोजिशन शोज़ डीप रेवरेंस टू औरंगज़ेब, इज़ ही देयर न्यू आइडल”।
इन सभी विषयों का एक स्पष्ट उद्देश्य दिखाई देता है – मुगल शासक को विपक्ष से जोड़कर धार्मिक भावनाओं को उकसाना और विभाजनकारी विमर्श को बढ़ावा देना। यह तरीका सरकार को उन प्रश्नों से बचाने का एक साधन बन गया है जो वास्तव में जनता के जीवन को प्रभावित करते हैं1। प्रधानमंत्री मोदी के दस साल के कार्यकाल में हुए विकास कार्यों या नीतिगत निर्णयों पर विस्तृत बहस के बजाय, मीडिया का एक वर्ग इतिहास के इस विवादास्पद व्यक्तित्व को लगातार चर्चा में लाता रहता है।
जबकि औरंगज़ेब और धार्मिक मुद्दों पर चर्चा चलती रहती है, कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दे अनदेखे रह जाते हैं। इनमें शामिल हैं:
पेट्रोलियम मूल्य वृद्धि: अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम में 23% की गिरावट के बावजूद, भारत में पेट्रोल और डीजल के दाम में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है। एक वर्ष के भीतर, कच्चे तेल का मूल्य $86.8 प्रति बैरल से घटकर $6.73 प्रति बैरल हो गया, फिर भी पेट्रोलियम उत्पादों के उपभोक्ता मूल्य लगभग स्थिर बने हुए हैं, जो सरकारी मुनाफाखोरी का संकेत देता है।
शेयर बाज़ार का पतन: पिछले पांच महीनों में, भारतीय शेयर बाज़ार में निवेशकों के लगभग 90 लाख करोड़ रुपये स्वाहा हो गए हैं। इस विशाल आर्थिक नुकसान पर मीडिया में कोई गंभीर चर्चा या वित्त मंत्री से सवाल-जवाब नहीं हुआ है।
गोदी मीडिया आपको क्या दिखा रहा है उसके कुछ उदाहरण देखिये
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में एक नाविक परिवार की सफलता की कहानी साझा की, जिसने कथित तौर पर कुंभ मेले के दौरान 45 दिनों में 30 करोड़ रुपये कमाए। मुख्यमंत्री ने इसे अमेरिकी उद्यमी एलोन मस्क से तुलना करते हुए एक सफलता की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया। हालांकि, अमर उजाला अखबार की रिपोर्ट ने खुलासा किया कि यह नाविक अरैल का पिंटू मेहरा है, जो एक हिस्ट्री शीटर है जिस पर हत्या, हत्या के प्रयास और अन्य गंभीर अपराधों के मुकदमे दर्ज हैं।
यह आश्चर्यजनक है कि इतनी महत्वपूर्ण जानकारी के बावजूद, मुख्य मीडिया आउटलेट्स ने इस मामले पर कोई सवाल नहीं उठाया। किसी ने यह नहीं पूछा कि मुख्यमंत्री को यह गलत जानकारी कैसे मिली या उन्होंने अपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति की प्रशंसा क्यों की। यह इस बात का एक स्पष्ट उदाहरण है कि कैसे महत्वपूर्ण विषयों पर सवाल उठाने से मीडिया बचता है।
From Aurangzeb to Ambani’s Zoo: Distractions in the Indian Media
जबकि मीडिया प्रधानमंत्री मोदी को वन्य जीव प्रेमी के रूप में दिखाता है, गुजरात में दो वर्षों के भीतर 286 सिंहों की मृत्यु के मामले पर बमुश्किल ही कोई चर्चा होती है। गुजरात के वन मंत्री द्वारा विधानसभा में इस जानकारी के सार्वजनिक होने के बावजूद, इस गंभीर पर्यावरणीय मुद्दे को मीडिया में उचित स्थान नहीं मिला। इसके बजाय, प्रधानमंत्री के अनंत अंबानी के निजी चिड़ियाघर ‘वन वंतारा’ के दौरे को व्यापक कवरेज दिया गया, जिसके बाद बॉलीवुड सितारों और क्रिकेटरों सहित कई हस्तियों ने एक साथ सोशल मीडिया पर इसकी प्रशंसा की।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कितने आरोप लगाये 21 मिलियन डॉलर मतलब लगभग 180 करोड़ रुपए भारत को दिए वर्तमान मोदी सरकार को दिए उन्होंने बोला की उस पेसे का इस्तेमाल वोटर टर्न आउट बढ़ाने के लिए किया गया , भारत पर लगाई गयी टैरिफ नीतियों और भारत पर उनके संभावित प्रभाव पर वैश्विक मीडिया में चर्चा हो रही है, लेकिन भारतीय मीडिया में इस पर बमुश्किल ही कोई विश्लेषण देखने को मिलता है। इसी तरह, अमेरिका से निर्वासित भारतीय नागरिकों के साथ अपमानजनक व्यवहार – जिन्हें हथकड़ियां और बेड़ियां पहनाकर सैन्य विमान में भारत वापस भेजा गया – पर भी गंभीर प्रश्न नहीं उठाए गए।
यह ध्यान देने योग्य है कि नेपाली नागरिकों को वापस भेजते समय ऐसा व्यवहार नहीं किया गया, जो इस बात का संकेत देता है कि यह भारत के प्रति अपमानजनक व्यवहार हो सकता है। फिर भी, भारतीय मीडिया ने सरकार से इस मामले पर जवाब मांगने के बजाय चुप्पी साध ली, जबकि विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने तो यहां तक कह दिया कि ट्रंप की सभी नीतियां भारत के अनुकूल हैं।
प्रस्तावित आयकर कानून के तहत, अधिकारियों को नागरिकों के सोशल मीडिया अकाउंट, ईमेल पासवर्ड और अन्य व्यक्तिगत डेटा तक पहुंच प्राप्त होगी, जो निजता के अधिकार पर एक गंभीर हमला है1। इसके अलावा, सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून को कमजोर करने के प्रयास भी जारी हैं। फिर भी, ये महत्वपूर्ण मुद्दे मीडिया चर्चा से अनुपस्थित हैं, जबकि औरंगज़ेब पर बहसें लगातार जारी हैं।
गोदी मीडिया और औरंगज़ेब: ज़रूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने का हथियार
गोदी मीडिया द्वारा ऐतिहासिक और विभाजनकारी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने से कई गंभीर परिणाम सामने आते हैं।
मीडिया का एक प्रमुख कार्य सरकार को जवाबदेह ठहराना और लोकतंत्र में “चौथे स्तंभ” के रूप में कार्य करना है। जब औरंगज़ेब जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्वों पर बहस के नाम पर वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाया जाता है, तो मीडिया अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी से विमुख हो जाता है। जैसा कि खोजी पत्रकारिता के अभाव में शिमर दिखता है, अकाउंटेबिलिटी का अभाव सुशासन को कमजोर करता है।
जब मीडिया औरंगज़ेब पर बहस करने में व्यस्त होता है, तब वे मुद्दे जो नागरिकों के दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं – जैसे पेट्रोल की कीमतें, शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव, या आयकर कानूनों में प्रस्तावित परिवर्तन – उन पर चर्चा नहीं होती। इससे लोकतंत्र के लिए आवश्यक सूचित नागरिकता कमजोर होती है।
मीडिया की ढाल के पीछे सरकार का असली खेल
जब भी सरकार से कठिन सवाल पूछने का समय आता है, मीडिया इतिहास के पन्ने पलटने लगता है। कभी औरंगज़ेब की चर्चा होती है, तो कभी किसी खिलाड़ी की सेहत पर बहस छेड़ दी जाती है। लेकिन असली मुद्दों पर चर्चा क्यों नहीं होती? इसका सीधा जवाब है— सरकार और मीडिया की मिलीभगत।
जनता को मानसिक गुलाम बनाने की साजिश
सरकार मीडिया के सहयोग से ऐसा माहौल बना रही है, जहां जनता सोचने और समझने की क्षमता खो दे। इसे इस तरह ढाला जा रहा है कि लोग वही मानें जो उन्हें बताया जाए और सरकार से सवाल पूछने की आदत ही खत्म हो जाए। जनता को इतिहास में उलझाकर, धार्मिक और जातीय बहसों में धकेलकर, सरकार एक ऐसा समाज गढ़ रही है जो सिर्फ उसकी हां में हां मिलाए, ना कि तर्क करे, ना ही किसी नीतिगत फैसले पर सवाल उठाए।
जिस मीडिया की जिम्मेदारी थी जागरूक समाज बनाना…
मीडिया का असली काम सरकार की नीतियों पर सवाल उठाना, जनता को सटीक जानकारी देना और एक जागरूक समाज बनाना था। लेकिन आज यह मीडिया सरकार का प्रचार तंत्र बन चुका है। यह सरकार की ढाल बनकर उसकी गलतियों को छिपाने में जुटा है। चैनलों पर वही दिखाया जाता है जो सरकार चाहती है, और जो दिखाया जाना चाहिए, उसे या तो दबा दिया जाता है या तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है।
इसका नुकसान किसका हो रहा है?
इस खेल में सबसे बड़ा नुकसान देश और जनता का हो रहा है। आपका, आपके बच्चों का, और आने वाली पीढ़ियों का। अगर मीडिया आपको सही जानकारी नहीं देगा, अगर वह सरकार की खामियों को नहीं उजागर करेगा, तो आप अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए सरकार से सवाल भी नहीं कर पाएंगे। आपको पता भी नहीं चलेगा कि आपके अधिकार क्या हैं, और सरकार किन नीतियों से आपको दबा रही है।
मीडिया आपकी आंखें बंद कर रहा है!
आज मीडिया आपको सच्चाई दिखाने के बजाय, आपका ध्यान भटकाने का काम कर रहा है। वह आपको उन्हीं मुद्दों में उलझाए रखता है, जिनका आपके जीवन से कोई सीधा लेना-देना नहीं। आपको यह एहसास तक नहीं होने दिया जाता कि देश में बेरोज़गारी बढ़ रही है, महंगाई चरम पर है, किसानों की हालत खराब हो रही है, और शिक्षा-स्वास्थ्य व्यवस्था दिनों-दिन गिरती जा रही है।
वर्तमान मीडिया परिदृश्य की समस्याओं को देखते हुए, अधिक जवाबदेह और जिम्मेदार पत्रकारिता की ओर बढ़ने के लिए कुछ कदम उठाए जा सकते हैं।
स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है जो स्पष्ट रूप से वास्तविक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करे। इसके साथ ही, नागरिकों को मीडिया साक्षरता का विकास करना चाहिए ताकि वे विचलनकारी तकनीकों को पहचान सकें और अधिक महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान दे सकें।
सोशल मीडिया और स्वतंत्र न्यूज़ प्लेटफॉर्म्स ने पारंपरिक मीडिया के एकाधिकार को चुनौती दी है। ये प्लेटफॉर्म्स उन मुद्दों पर प्रकाश डाल सकते हैं जिन्हें मुख्यधारा के मीडिया द्वारा अनदेखा किया जाता है। उदाहरण के लिए, अमर उजाला की पिंटू मेहरा पर रिपोर्ट दर्शाती है कि कैसे एक स्वतंत्र पत्रकारिता की दृष्टि महत्वपूर्ण खुलासों की ओर ले जा सकती है।
भारतीय मीडिया परिदृश्य में औरंगज़ेब जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के माध्यम से विचलन की रणनीति एक गंभीर चिंता का विषय है। इस रणनीति से सरकार महत्वपूर्ण मुद्दों पर जवाबदेही से बच जाती है, जबकि जनता वास्तविक समस्याओं से अनजान रहती है। जनता को सचेत रहना होगा और इन विचलनकारी तकनीकों को पहचानना होगा, और साथ ही ऐसे मीडिया स्रोतों की तलाश करनी होगी जो महत्वपूर्ण मुद्दों पर निष्पक्ष और विस्तृत कवरेज प्रदान करते हैं।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ केवल तभी प्रभावी हो सकता है जब यह सत्ता को जवाबदेह ठहराने और जनता को सूचित करने के अपने मूल कर्तव्य को पूरा करे। ऐतिहासिक व्यक्तित्वों पर अनंत बहसों के बजाय, मीडिया को वर्तमान मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो आम नागरिकों के जीवन को प्रभावित करते हैं। अंततः, जनता को यह अधिकार है कि वह अपनी चुनी हुई सरकार से सवाल करे, न कि 300 साल पहले मर चुके औरंगज़ेब से।