आए साल चुनाव हो रहे हैं और जोरों-शोरों से चुनाव प्रचार किया जा रहा है। लेकिन जरा ठहरो, सांस लो और सोचो—तुम्हारे लिए क्या बदला? क्या तुम्हारी जेब में नौकरी का ऑफर लेटर आया? क्या तुम्हारे घरवालों के माथे से चिंता की लकीरें कम हुईं? या फिर तुम भीड़ में खड़े होकर झंडा लहराने और नारे लगाने में ही व्यस्त थे?
नेताओं के भगवान बनने की कहानी
युवा बेरोजगार है, लेकिन उसके हाथ में पार्टी का झंडा और नारे लगाने के लिए माइक है। बेरोजगारी की इतनी बुरी हालत हो गई है कि आज का नौजवान किसी भी राजनीतिक सभा में भीड़ जुटाने के लिए मौजूद रहता है, लेकिन जब उसे नौकरी चाहिए होती है, तो उसे लाठियां मिलती हैं।
तुम जिन नेताओं को भगवान समझ रहे हो, उन्होंने तुम्हें लाइन में लगा दिया है—लेकिन यह नौकरी की लाइन नहीं, बल्कि बेरोजगारों की भीड़ में शामिल होने की लाइन है। तुमने जो मोबाइल हाथ में पकड़ा है, जिससे नेताओं के भाषण रिकॉर्ड कर रहे हो, वह भी शायद ईएमआई पर लिया होगा। अगर हालात ऐसे ही रहे तो अगली ईएमआई भरने के लिए तुम्हें अपने कपड़े बेचने पड़ सकते हैं!
बड़े-बड़े वादे, बड़ी-बड़ी घोषणाएं और फिर उसमें धर्म, भक्ति, प्रतीकों, जाति-बिरादरी का तड़का लगाकर चुनाव जीते जाते हैं। हिंदू-मुस्लिम, ऊँची जात, नीची जात—इन तमाम मुद्दों को उठाकर सत्ता हासिल कर ली जाती है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या हमारे देश के असली मुद्दों में सुधार हुआ? जो वादे किए गए थे, क्या उन्हें पाँच साल में पूरा किया गया?
हर चुनाव पाँच साल बाद आता है, लेकिन इन पाँच सालों में हमारी शिक्षा की गुणवत्ता कितनी सुधरी? सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं पर कितना ध्यान दिया? इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास कितना हुआ? मीडिया और लोकतंत्र के चारों स्तंभ किस तरह से कार्य कर रहे हैं? क्या वाकई हम उस भारत की ओर बढ़ रहे हैं, जिसका सपना हमारे संविधान निर्माताओं और स्वतंत्रता सेनानियों ने देखा था?
उनका सपना एक ऐसा भारत था जहाँ सबको समान अधिकार मिले, भाईचारा बना रहे, और तर्कशील सोच को बढ़ावा दिया जाए। धर्म की राजनीति नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी जाए ताकि लोग किसी के बहकावे में न आएं, बल्कि तर्क और तथ्य के आधार पर निर्णय लें। इसी सोच के साथ IIT, IIM और अन्य उच्च शिक्षा संस्थान बनाए गए थे, ताकि शिक्षा के स्तर को ऊँचा किया जा सके। चुनावों की पाँच साल की समय-सीमा इसलिए रखी गई थी कि जो भी नेता या दल जनता के सामने जाए, वह अपने घोषणापत्र के साथ सामने आए और बताए कि वह अगले पाँच सालों में क्या करेगा।
लेकिन आज की राजनीति में असली मुद्दों को छोड़कर लोगों का ध्यान दूसरी ओर भटकाया जा रहा है। नेता बोलते है अरे इतिहास पे गर्व करो उसको जानो और कौन सा इतिहास वो इतिहास जो हम आपको बतायेंगे वो नही जो असली इतिहास है उसको मत जानना नही तो हमारा खेल ख़राब हो जायेगा तुम्हे क्या चाहिए तुम्हें मंदिर चाहिए ठीक है हम बड़े-बड़े मंदिर बनाएंगे और यही नहीं हम मंदिरों की खोज भी करेंगे मस्जिदों के नीचे या जो बड़ी-बड़ी इतिहास की इमारतें बनी हुई है उनके नीचे भी हम खुदाई करवाएंगे लेकिन तुम हमसे सवाल मत करना तुम्हे धर्म चाहिए तो ठीक है धर्म की रक्षा करो बड़े बड़े धार्मिक आयोजन करो और फिर उन आयोजनों में हमारा प्रचार करो ,हम हेलीकॉप्टर से फूलों की वर्षा करेंगे और हम vip बनकर आयेंगे और तुम्ह भगदड़ में एक दूसरे के ऊपर दबाकर कुचलकर मर जाओगे और फिर हमारा नाम खराब ना हो जाए हम उसको दबाएंगे ताकि मरने वालों की खबरें पता ना चले नहीं तो हमारा नाम खराब हो जाएगा और अगर सवाल करोगे भी तो तुम्हें धर्म विरोधी देश विरोधी बोल दिया जाएगा और फिर तुम में से ही मैक्सिमम लोग उनके बचाव में आ जाओगे एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने लगोगे

हम जो आपको बता रहे हैं बस उसको सच मानो और उस पर गर्व करो हम विश्व गुरु बन चुके हैं तो तुम चिल्लाओ और आप सबको बताओ कि हम विश्व गुरु बन गए हैं अब हम सब पर राज कर रहे हैं अब हमारे सामने कोई नहीं बोलना हमारी एजुकेशन तो फर्स्ट क्लास है भाई, कोई हमारा मुकाबला भी नहीं कर सकता हमारे देश के एजुकेशन का लेकिन तुम सवाल मत करो सिर्फ गर्व करो और अगर तुम्हारे नेताओं से सवाल करें तो तुम उसके खिलाफ बोलो
क्या हम सच में अपने वोट डालते समय इन मुद्दों को ध्यान में रखते हैं? क्या हम शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और विकास जैसे सवालों पर विचार करते हैं, या फिर हमें सिर्फ धर्म और जाति की राजनीति में उलझाकर गुमराह किया जाता है? सोचोगे भी कैसे जब सोचने ही नही दिया जा रहा है ,जिस मीडिया या टीवी चेनलों को तुम देखते हो वो सब तो बड़े बड़े बिजनेसमैनो के है और वो सरकारों को पॉलिटिकल पार्टियों को फंडिंग देते है और फिर वो उनको फायदा पहुँचाते है सरकार उनको advertisement देती है उनको करोड़ो रुपया मिलता है तो वो तो इनका प्रचार करने और जनता को गुमराह करने का काम करती है
सोचो, जब हम वोट डालते हैं, तो किस आधार पर डालते हैं?
हम सच में सोचते भी हैं या बस वैसे ही डाल देते हैं—”अरे, ये मेरी जात का है,” “हमारी बिरादरी का आदमी है,” “ये मेरी पसंदीदा पार्टी का है, ये मेरा जानने वाला है , बस इसे ही जिताना है!” क्या हमने कभी ये सोचा कि जिसे हम वोट दे रहे हैं, वो वाकई हमारे इलाके के लिए कुछ करेगा भी या नहीं? उसकी पढ़ाई-लिखाई, सोच-विचार, हमारे एरया के विकास के लिए इसके पास , हमारे बच्चों के भविष्य के लिए उसकी कोई प्लानिंग है या नहीं? या फिर हम बस उसी पुरानी लकीर को पीटते रहते हैं?
बेरोजगारी का भूत और घोटालों की बरसात
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा—हर जगह युवा सरकारी नौकरी के लिए 30 साल 35 साल तक मेहनत कर रहे हैं। लेकिन जब सरकारी नौकरियां निकलती भी हैं, तो कभी पेपर लीक हो जाता है, कभी सीटें बिक जाती हैं, कभी पूरा एग्जाम कैंसिल हो जाता है। और जब समय मिलता है, तो युवा फिर से किसी रैली में झंडा उठाए नजर आता है, आपके माँ पापा भूखे मर रहे है उन्होंने उधार पैसा लेकर तुम्हे पढ़ाया है मेहंगी कोचिंग भी करायी और तुम अपने अधिकारों को भूलकर भीड़ में शामिल हो जाता है। पार्टियों के अंधभक्त नेताओ के अंधभक्त बने हुवे हो
युवाओं की सबसे बड़ी परेशानी सिर्फ बेरोजगारी नहीं है, बल्कि उस बेरोजगारी के साथ आने वाला जबरदस्त पारिवारिक दबाव भी है। घर में बहनों की शादी करनी है, छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई का खर्च उठाना है, माता-पिता की देखभाल करनी है, उनकी दवाइयों के लिए पैसा चाहिए… लेकिन जब खुद के पास कोई ठोस रोजगार नहीं होता, तो क्या करे वो युवा? उसकी सारी पढ़ाई-लिखाई, मेहनत, सपने—सब धरे के धरे रह जाते हैं।
जब हालात बेकाबू हो जाते हैं, तो कई युवा मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं। लेकिन क्या सरकार के पास इसका कोई ठोस हल है? नहीं! क्योंकि सरकारें सिर्फ आंकड़ों का खेल खेलती हैं। बेरोजगारी के असली हालात को छुपाने के लिए आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है। किसी रिपोर्ट में दिखाया जाएगा कि बेरोजगारी दर कम हो गई है, लेकिन ग्राउंड पर सच्चाई कुछ और ही होती है।
आज डिग्री लेकर घूमने वाले लाखों नौजवान बेरोजगार हैं। इंजीनियर, एमबीए, पीएचडी किए हुए युवा तक सरकारी भर्तियों का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन सरकारें सिर्फ वादे करती हैं। कभी कहती हैं, वैकेंसी निकलेगी, कभी परीक्षा होती है तो रिजल्ट अटक जाता है, और अगर रिजल्ट आ भी गया तो भर्ती कैंसिल कर दी जाती है।
दूसरी तरफ, सरकार से जुड़े लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। चुनाव के समय राजनीतिक दल रोजगार के नाम पर मीठे वादे करके चले जाते हैं, लेकिन असल में न नौकरियां दी जाती हैं, न युवाओं के लिए कोई ठोस नीति बनाई जाती है।
सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि सरकार कितनी सरकारी नौकरियां निकाल रही है, बल्कि सवाल यह भी है कि जो युवा नौकरी नहीं पा सकते, उनके लिए क्या अवसर बनाए जा रहे हैं? जब नौकरी नहीं है, तो सरकार को एजुकेशन सिस्टम को ऐसा बनाना चाहिए कि युवा खुद का काम शुरू कर सकें। उन्हें बिजनेस करने के लिए आसान लोन मिले, सरकारी योजनाओं का लाभ मिले, लेकिन असलियत यह है कि सिस्टम इतना जटिल है कि आम आदमी खुद का बिजनेस सेटअप करने की सोच भी नहीं सकता।
युवाओं की इस स्थिति को समझने वाला कोई नहीं है। न समाज, न सरकार, न ही वे नेता जो हर पांच साल बाद रोजगार देने का वादा करके चले जाते हैं। आखिर कब तक ये आंकड़ों का खेल चलता रहेगा? और कब तक युवा इस अनिश्चितता में फंसे रहेंगे?
असली मुद्दों की बात कोई क्यों नहीं करता?
क्योंकि हमें बहलाना बहुत आसान है! कोई आकर कह देता है—”तुम्हारा धर्म खतरे में है,” “इतिहास में तुम्हारे साथ अन्याय हुआ था,” “फलाना समाज तुम्हारा दुश्मन है,” और बस, हम इन्हीं बातों में उलझ जाते हैं। फिर क्या होता है? हम सड़क, पानी, बिजली, रोजगार, शिक्षा—सब भूल जाते हैं। नेता जानते हैं कि अगर हम असली सवाल पूछने लगे तो उन्हें जवाब भी देने पड़ेंगे, और इससे उनका खेल खराब हो सकता है। इसलिए हमें असली मुद्दों से भटका कर झूठी शान और गौरव की कहानियों में उलझा दिया जाता है। और तुम अरे यही तो है मेरा नेता जो मेरी बात कर रहा है चलो कोई बात नही वो जो मुद्दे है वो तो देख लेंगे पहले धर्म की रक्षा होनी चाहिये
और नेता? उनका क्या?
नेताओं के अपने बच्चे विदेशों में पढ़ाई कर रहे होते हैं, बड़े-बड़े कॉलेजों से डिग्री लेकर ऊँचे ओहदों पर पहुँचते हैं, बिजनेस या राजनीति में सेट हो जाते हैं। और हम? हम मंदिर-मस्जिद, जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय में उलझे रह जाते हैं, बिना यह सोचे कि हमारे बच्चों का भविष्य क्या होगा।
अब सवाल यह है कि हम कब बदलेंगे?
अगर हमें सच में बदलाव चाहिए, तो हमें अपनी सोच बदलनी होगी। हमें ये तय करना होगा कि हमारा वोट जाति-धर्म पर नहीं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, रोजगार जैसे असली मुद्दों पर जाना चाहिए। अगर हम नेता से ये सवाल पूछने लगें कि, “भाई, तुम हमारे लिए क्या करोगे?” तो कोई भी नेता हमें नजरअंदाज करने की हिम्मत नहीं करेगा।
चुनाव जितना सीधा-साधा होना चाहिए, उतना ही जटिल और महंगा होता जा रहा है। असल में होना तो ये चाहिए कि जनता अपने इलाके के सबसे काबिल, ईमानदार और काम करने वाले उम्मीदवार को चुने। लेकिन अब चुनाव इस पर नहीं, बल्कि इस पर तय होते हैं कि किसके पास कितना पैसा है, कौन कितने बड़े-बड़े प्रचार कर सकता है, किसकी रैली में कितनी भीड़ जुटती है, और कौन सबसे ज्यादा दिखावा कर सकता है।
पहले एक उम्मीदवार कुछ गिने-चुने संसाधनों के साथ चुनाव लड़ सकता था। लेकिन आज? करोड़ों-अरबों रुपये सिर्फ प्रचार में बहा दिए जाते हैं—बड़े-बड़े होर्डिंग्स, महंगी गाड़ियां, भव्य मंच, हेलीकॉप्टर से रैलियां, सोशल मीडिया पर करोड़ों के विज्ञापन। और ये पैसा कहां से आता है? जाहिर है, जनता के टैक्स से, कॉरपोरेट फंडिंग से, काले धन से। यह भी पढ़ो : भारत में बेरोजगारी और शिक्षा की गुणवत्ता की बात करें, हमारी शिक्षा व्यवस्था क्यों कमजोर है और बेरोजगारी क्यों बढ़ रही है? क्यों नेता और बड़े उद्योगपति शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देते? क्यों जानिए पॉइंट टू पॉइंट
सोचिए, चुनाव जो लोकतंत्र की सबसे सरल प्रक्रिया होनी चाहिए, वो अब अमीरों का खेल बन चुका है। जिसके पास पैसा, वही चुनाव जीतने की रेस में आगे। अब जनता की पसंद से ज्यादा, प्रचार और पैसों की ताकत तय करती है कि कौन सत्ता में आएगा। और फिर जब यही नेता जीतकर आते हैं, तो सबसे पहले अपनी जेब भरने में लग जाते हैं—क्योंकि चुनाव में जो खर्च किया है, उसकी भरपाई भी तो करनी है!
अगर हम सच में बदलाव चाहते हैं, तो हमें ये दिखावे और खर्चे से परे सोचना होगा। हमें असल सवाल पूछने होंगे—कौन हमारे लिए काम करेगा? कौन हमारे बच्चों का भविष्य सुधार सकता है? कौन हमारे इलाके को सच में आगे बढ़ाने वाला है? क्योंकि अगर हम सिर्फ चमक-धमक देखकर वोट देते रहेंगे, तो नेता भी सिर्फ दिखावे पर ही पैसा बहाते रहेंगे, असली विकास पर नहीं! यह भी पढ़े : भट्टा-पारसौल आंदोलन, भूमि अधिग्रहण कानून 2013 और कॉरपोरेट्स के निशाने पर राहुल गांधी …मयावती के विलेन