1993 Serial Train Blasts: Abdul Karim Tunda Acquitted , 29 फरवरी 2024 में अजमेर की टाडा कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए 1993 के सीरियल ट्रेन बम ब्लास्ट केस में आरोपी अब्दुल करीम टुंडा को सभी आरोपों से बरी कर दिया। लगभग 30 साल से चल रहे इस मामले में अदालत ने टुंडा को पूरी तरह से निर्दोष पाया, जबकि दो अन्य आरोपियों – इरफान और हमीदुद्दीन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। यह फैसला कई सवाल खड़े करता है कि आखिर इतने लंबे समय तक चले मुकदमे में क्या हुआ और क्यों एक व्यक्ति जिसे लंबे समय तक खतरनाक आतंकवादी माना जाता रहा, अंत में बेकसूर साबित हुआ।
1993
6 दिसंबर 1993 को भारत के कई शहरों में ट्रेनों के अंदर सिलसिलेवार बम विस्फोट हुए थे। ये विस्फोट अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए थे, इन धमाकों को बाबरी मस्जिद विध्वंस की पहली बरसी के रूप में अंजाम दिया गया था। ऐसा माना गया
जिसने पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा कर दिया था। कोटा, लखनऊ, कानपुर, हैदराबाद, सूरत और मुंबई की ट्रेनों में हुए इन विस्फोटों ने देश को दहला दिया था। इन हमलों के पीछे कथित सांप्रदायिक प्रतिशोध का मकसद था और इसके तार बाहरी आतंकी संगठनों से जुड़े होने का संदेह था।
इन विस्फोटों के बाद पुलिस और जांच एजेंसियों ने कई संदिग्धों को गिरफ्तार किया। इन हमलों की योजना, निष्पादन और लॉजिस्टिक सपोर्ट के आरोप में कई लोगों पर मुकदमे चलाए गए। हालांकि, जांच प्रक्रिया में कई खामियां रही हों, ऐसा लगता है, क्योंकि 30 साल बाद भी इस मामले का पूरा सच सामने नहीं आ पाया है। अब जब इस केस के प्रमुख आरोपियों में से एक को बरी कर दिया गया है, तो कई अनुत्तरित सवाल खड़े हो गए हैं।
इन बम विस्फोटों ने न केवल भौतिक नुकसान पहुंचाया बल्कि कई निर्दोष लोगों की जान भी ली। हालांकि हमारे पास मौजूदा सर्च रिजल्ट में पीड़ितों की सटीक संख्या नहीं है, लेकिन इन विस्फोटों ने पूरे देश में दहशत फैला दी थी। आम नागरिकों के मन में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई थी और लोग ट्रेन यात्रा करने से डरने लगे थे। विस्फोटों के पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए न्याय का इंतजार 30 साल से जारी था, और अब जब प्रमुख आरोपी को ही बरी कर दिया गया है, तो उनकी पीड़ा और भी बढ़ गई होगी।
अब्दुल करीम टुंडा: आतंक का मास्टरमाइंड या महज एक संदिग्ध?
साल 1943 में पुरानी दिल्ली के छत्तालाल मियां इलाके में जन्मा अब्दुल करीम टुंडा, कभी गाजियाबाद के पिलखुआ में बढ़ईगिरी करता था, लेकिन वक्त के साथ वह भारत के सबसे खतरनाक आतंकवादियों में गिना जाने लगा।
गुमशुदगी और संदिग्ध गतिविधियां
टुंडा की जिंदगी शुरू में आम आदमी जैसी ही थी। पिता लोहे की ढलाई का काम करते थे, और उसने भी भाइयों के साथ बढ़ईगिरी सीखी। उसकी शादी जरीना नाम की महिला से हुई,इससे उनके (तीन बच्चे – इमरान, रशीदा, इरफान) हुवे लेकिन कुछ ही सालों में उसके हाव-भाव बदलने लगे। वह अक्सर कई-कई दिनों तक घर से गायब रहने लगा।
1981 में, उसने अचानक अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ दिया। जब वह लौटा, तो उसके साथ गुजरात अहमदाबाद की रहने वाली मुमताज जिससे उसने शादी की थी—उसकी दूसरी पत्नी। परिवार वाले कुछ समझ पाते, इससे पहले ही टुंडा फिर गायब हो गया। लेकिन इस बार उसकी तलाश सिर्फ उसका परिवार नहीं कर रहा था, बल्कि भारतीय खुफिया एजेंसियां भी उसके पीछे थीं।
अब्दुल करीम टुंडा का नाम लंबे समय से आतंकवाद से जुड़े मामलों में लिया जाता रहा है। 2013 में उसे गिरफ्तार किया गया था, टुंडा पर न केवल 1993 के ट्रेन बम ब्लास्ट का आरोप था बल्कि 1997 के रोहतक बम विस्फोट मामले में भी उसे आरोपी बनाया गया था, जिसमें उसे पहले ही सबूतों के अभाव में बरी किया जा चुका है।
पहली बार अपराधी बना
टुंडा का आपराधिक इतिहास 1956 में चोरी के एक मामले से शुरू हुआ। लेकिन धीरे-धीरे उसने खुद को कट्टरपंथी संगठनों से जोड़ लिया। मुंबई के डॉक्टर जलेश अंसारी और नांदेड के आजम गोरी के साथ मिलकर उसने तंजीम इस्लाम उर्फ मुसलमीन संगठन बनाया।
1993: बाबरी विध्वंस का बदला लेने के लिए बम धमाके
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद टुंडा ने इसका बदला लेने की ठानी। उसने 1993 में पांच बड़े शहरों में ट्रेनों में बम ब्लास्ट कराए।
इसके बाद, 1996 में दिल्ली पुलिस मुख्यालय के सामने बम धमाका हुआ, जिसमें टुंडा को आरोपी बनाया गया।
इंटरपोल का रेड कॉर्नर नोटिस और नेपाल बॉर्डर से गिरफ्तारी
- उस पर कुल 33 आपराधिक मामले दर्ज हुए।
- 1997-98 में करीब 40 बम धमाकों में उसका नाम शामिल रहा।
- इंटरपोल ने उस पर रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया।
टुंडा कैसे बना ‘टुंडा’?
बम बनाना उसकी खासियत थी, लेकिन एक दिन बम बनाने के दौरान उसका एक हाथ उड़ गया। तभी से अब्दुल करीम ‘टुंडा’ के नाम से पहचाना जाने लगा।
टुंडा का असली नाम अब्दुल करीम है और उसे ‘टुंडा’ (एक हाथ वाला) इसलिए कहा जाता था क्योंकि उसका एक हाथ विकलांग था। ये सब उन पर आरोप लगे
अजमेर की टाडा कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में टुंडा को हर धारा, हर सेक्शन, हर एक्ट से बरी किया है। यानी अदालत ने उसे पूरी तरह से निर्दोष पाया। वर्तमान में टुंडा अजमेर की जेल में बंद है, संभवतः अन्य मामलों के कारण, जिनके बारे में हमारे पास विस्तृत जानकारी नहीं है।
1993 में हुए इन विस्फोटों के मामले में न्यायिक प्रक्रिया लगभग 30 साल तक चली। शुरुआत में 1994 में यह प्रकरण अजमेर टाडा कोर्ट में आया था। 28 फरवरी 2004 को, यानी विस्फोटों के 11 साल बाद, टाडा कोर्ट ने 16 अभियुक्तों को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में गया, जहां शीर्ष अदालत ने चार आरोपियों – मोहम्मद यूसुफ, सली मोहम्मद, निसार उद्दीन और मोहम्मद जद्दन को बरी कर दिया था, जो जयपुर जेल में बंद थे ,जबकि बाकी आरोपियों की सजा बहाल रखी थी।
इस मामले में कई आरोपी फरार थे और कुछ को सजा सुनाई गई थी। अब्दुल करीम टुंडा का मामला लंबे समय तक चला और अंततः 29 फरवरी 2024 को अजमेर की टाडा कोर्ट ने उसे बरी कर दिया, जबकि इरफान और हमीदुद्दीन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
इस मामले में न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति ने न्याय के मूल सिद्धांत “जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड” (देर से मिला न्याय, न्याय का इनकार है) को सच साबित किया है। 30 साल तक चले इस मुकदमे में, कई आरोपियों ने अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा जेल में बिताया, और अंत में कुछ को बरी कर दिया गया। इससे न केवल उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा, बल्कि उनके परिवारों को भी अपार पीड़ा से गुजरना पड़ा। ऐसे लंबे मुकदमों से न्याय व्यवस्था पर जनता का विश्वास भी कम होता है।
अब्दुल करीम टुंडा: क्या वह असली गुनहगार था या सबूतों की कमी ने उसे बचा लिया?
जब अब्दुल करीम टुंडा को 2013 में गिरफ्तार किया गया, तब वह भारत का मोस्ट वांटेड आतंकवादी माना जाता था। उस पर बम धमाकों, आतंकवादी गतिविधियों और लश्कर-ए-तैयबा के लिए काम करने जैसे गंभीर आरोप थे। भारतीय एजेंसियां उसे 1993 के मुंबई बम धमाकों और 1996 के सोनीपत बम ब्लास्ट समेत कई हमलों का मास्टरमाइंड मानती थीं। लेकिन अब, कई मामलों में उसे सबूतों के अभाव में बरी किया जा चुका है।
टुंडा पर लगे आरोप और उनके पीछे की कहानी
भारत सरकार और खुफिया एजेंसियों ने टुंडा पर जो आरोप लगाए, उनमें सबसे प्रमुख थे:
- 1993 के मुंबई बम धमाके: टुंडा पर आरोप था कि उसने लश्कर-ए-तैयबा के लिए बम बनाए और उन्हें भारत भेजा।
- 1996 का सोनीपत बम धमाका: इसमें उसे अदालत ने दोषी ठहराया और उम्रकैद की सजा दी।
- 26/11 के बाद पाकिस्तान से प्रत्यर्पण की मांग: भारत ने उसे 20 मोस्ट वांटेड आतंकियों में शामिल किया, जिसे पाकिस्तान को सौंपने के लिए कहा गया था।
- आईएसआई और लश्कर-ए-तैयबा से संबंध: पुलिस के अनुसार, वह आईएसआई का प्रशिक्षित एजेंट था और भारत में आतंकी हमले कराने में मदद करता था।
- पाकिस्तानी पासपोर्ट: जब वह गिरफ्तार हुआ, तो उसके पास से पाकिस्तानी पासपोर्ट (नंबर AC 4413161, जारी 2013) मिला।
अदालत में क्या हुआ?
जब मुकदमे चले, तो अभियोजन पक्ष (Prosecution) के पास कई मामलों में पर्याप्त सबूत नहीं थे।
- 2016 में दिल्ली की अदालत ने उसे चार मामलों में बरी कर दिया और 1 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया।
- 2024 में अजमेर टाडा कोर्ट ने उसे 1993 ब्लास्ट केस में सबूतों के अभाव में बरी कर दिया।
- लेकिन 1996 के सोनीपत बम धमाके में उसे दोषी ठहराया गया और उम्रकैद की सजा दी गई।
क्या टुंडा सच में गुनहगार था?
यह सवाल अब भी बना हुआ है।
- सरकार और खुफिया एजेंसियों का मानना था कि वह भारत में आतंकी गतिविधियों का मास्टरमाइंड था।
- लेकिन अदालत में कई मामलों में उसके खिलाफ पक्के सबूत पेश नहीं किए जा सके।
- क्या यह कानून की कमजोरी थी? या फिर सबूत सच में नहीं थे?
वर्तमान स्थिति: क्या यह न्याय है?
टुंडा अब कुछ मामलों में बरी हो चुका है, लेकिन वह अभी भी जेल में अपनी सजा काट रहा है।
- क्या वह सच में मासूम था, और उसे गलत तरीके से फंसाया गया?
- या फिर सबूतों की कमी ने उसे बचा लिया, जबकि वह असली गुनहगार था?
29 फरवरी 2024 को अजमेर की टाडा कोर्ट ने अब्दुल करीम टुंडा को 1993 के सीरियल बम ब्लास्ट मामले में बरी कर दिया। कोर्ट ने टुंडा को किसी भी मामले में दोषी नहीं पाया और उसे हर धारा, हर सेक्शन, हर एक्ट से बरी किया। हालांकि, कोर्ट ने दो अन्य आरोपियों इरफान और हमीदुद्दीन को दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
सरकारी वकील से जब सवाल किया गया कि टुंडा को किस आधार पर बरी किया गया है, तो उन्होंने कहा कि फैसला देखने के बाद ही इस पर टिप्पणी की जाएगी। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि फैसले के पीछे के तर्क और कारण अभी सार्वजनिक रूप से पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किए गए हैं।
टुंडा की रिहाई के पीछे संभावित कारण सबूतों का अभाव हो सकता है, जैसा कि उसे पहले भी 1997 के रोहतक बम विस्फोट मामले में सबूतों के अभाव में बरी किया गया था। ऐसे मामलों में अक्सर, प्रथम दृष्टया (prima facie) साक्ष्य के आधार पर आरोप लगाए जाते हैं, लेकिन अदालती प्रक्रिया में ठोस सबूतों की आवश्यकता होती है। 30 साल के लंबे समय में, कई सबूत नष्ट हो सकते हैं, गवाह अपनी बात बदल सकते हैं या उनकी स्मृति धूमिल हो सकती है, जिससे मामला कमजोर पड़ सकता है।
अब्दुल करीम टुंडा की रिहाई से कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं जिनका जवाब सरकार और संबंधित अधिकारियों को देना चाहिए:
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क्या 30 साल तक एक व्यक्ति को बिना ठोस सबूतों के आरोपी बनाए रखना न्यायसंगत है?
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जांच एजेंसियों द्वारा इस मामले में क्या-क्या चूक हुई कि इतने साल बाद भी वे अदालत को संतुष्ट करने वाले सबूत पेश नहीं कर पाए?
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क्या यह मामला बताता है कि हमारी न्याय प्रणाली में आमूल सुधार की आवश्यकता है, जिससे मुकदमों का निपटारा जल्दी हो सके?
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इतने लंबे समय तक मुकदमा चलने के दौरान जो व्यक्ति जेल में रहे, उन्हें क्या मुआवजा मिलना चाहिए, अगर अंत में वे निर्दोष साबित होते हैं?
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क्या ऐसे संवेदनशील मामलों में जांच एजेंसियों और अभियोजन पक्ष की जवाबदेही तय करने का कोई तंत्र है?
इन सवालों का सामना न केवल वर्तमान सरकार को करना चाहिए, बल्कि पिछली सरकारों को भी, जिनके कार्यकाल में यह मामला चला। यह केवल एक व्यक्ति के मामले से परे है और हमारे न्याय तंत्र की कार्यप्रणाली पर गहरा सवाल उठाता है।
जबकि अब्दुल करीम टुंडा को बरी कर दिया गया है, विस्फोटों के पीड़ितों के परिवारों के लिए यह बड़ा झटका हो सकता है। वे 30 साल से न्याय की प्रतीक्षा कर रहे थे और अब उन्हें यह समझने में कठिनाई हो रही होगी कि आखिर असली दोषी कौन हैं और उन्हें न्याय कब मिलेगा। सरकार को इन परिवारों के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए और उन्हें उचित मुआवजा प्रदान करना चाहिए।
1993 के ट्रेन बम ब्लास्ट केस और अब्दुल करीम टुंडा की रिहाई हमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई और न्याय के बीच संतुलन के महत्व को याद दिलाती है। आतंकवाद से निपटने के लिए कठोर कदम उठाना आवश्यक है, लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि निर्दोष लोगों को परेशान न किया जाए और उनके अधिकारों का हनन न हो।
इस मामले से यह स्पष्ट होता है कि हमें अपनी जांच और अभियोजन प्रणाली को मजबूत करने की आवश्यकता है। सबूतों के संकलन, संरक्षण और प्रस्तुतीकरण में वैज्ञानिक तरीके अपनाने चाहिए ताकि अदालत में मजबूत केस पेश किया जा सके। साथ ही, मुकदमों के त्वरित निपटारे के लिए न्यायिक सुधारों की भी जरूरत है।
आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हम अपने मूल्यों और सिद्धांतों से समझौता न करें। हर व्यक्ति को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार है, और यदि उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं, तो उसे बरी किया जाना चाहिए, चाहे आरोप कितने भी गंभीर क्यों न हों।
हमें ऐसी न्याय प्रणाली की आवश्यकता है जो न केवल निष्पक्ष और पारदर्शी हो, बल्कि समय पर न्याय प्रदान करने में भी सक्षम हो। जांच एजेंसियों को अधिक प्रभावी और वैज्ञानिक तरीकों से काम करने की जरूरत है, ताकि दोषियों को सजा मिले और निर्दोष लोग परेशान न हों।